उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था पर गहन मंथन–प्रवक्ता मुकेश बहुगुणा

हिमालय टाइम्स गबर सिंह भण्डारी श्रीनगर गढ़वाल। उत्तराखंड जिसे हम श्रद्धा से देवभूमि कहते हैं,वह भूमि जहां ऋषि-मुनियों ने अपने ज्ञान,तप और साधना से भारत को विश्वगुरु बनाया। यहां की वादियों से निकली ज्ञान

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हिमालय टाइम्स गबर सिंह भण्डारी

श्रीनगर गढ़वाल। उत्तराखंड जिसे हम श्रद्धा से देवभूमि कहते हैं,वह भूमि जहां ऋषि-मुनियों ने अपने ज्ञान,तप और साधना से भारत को विश्वगुरु बनाया। यहां की वादियों से निकली ज्ञान गंगा ने सदियों तक समाज को आलोकित किया। परंतु आज यही देवभूमि एक गंभीर विडंबना का सामना कर रही है गुरु,शिक्षक,मार्गदर्शक जो समाज के स्तंभ हैं,वे सम्मान व प्रगति के अवसरों से वंचित होकर निराशा और हताशा में आंदोलन की राह पकड़ रहे हैं। शिक्षक क्यों हताश है-आज उत्तराखंड का शिक्षक जो समाज में प्रेरणा और सम्मान का प्रतीक होना चाहिए था,निरंतर उपेक्षा का शिकार हो रहा है। दुखद यह है कि 35 वर्ष तक सेवा देने के बाद भी यदि एक शिक्षक बिना किसी पदोन्नति के सेवानिवृत्त हो जाता है,तो यह केवल व्यक्तिगत पीड़ा नहीं बल्कि पूरे समाज में शिक्षा और गुरु के सम्मान पर गहरी चोट है।
जहां एक ओर कनिष्ठ सहायक या अन्य कर्मचारी चार-चार बार पदोन्नत होकर अधिकारी बन जाते हैं,वहीं शिक्षक का पूरा जीवन एक ही पद पर बीत जाता है। यह न केवल अन्याय है बल्कि शिक्षा जैसी संवेदनशील सेवा के साथ खिलवाड़ भी है। ऐतिहासिक भूल और उसका असर-राज्य गठन (2000) के बाद शिक्षक सेवा से जुड़े कई निर्णय ऐसे हुए जो घातक सिद्ध हुए। शासनादेश संख्या 2158/मा.सं.वि./2001 दिनांक-16-06-2001 इसका उदाहरण है। यह शासनादेश लंबे समय तक प्रभावी रहा लेकिन रहस्यमय तरीके से शिक्षा निदेशालय और शासन स्तर से गायब हो गया। इसके चलते प्रवक्ताओं की बैक डेट सीनियरिटी से जुड़े विवाद उत्पन्न हुए,अनेक मामले न्यायालयों में पहुंचे और आज तक शिक्षकों की कुंठा का कारण बने हुए हैं।
भूल सुधारने की जिम्मेदारी शासन-प्रशासन की होती है,लेकिन शिक्षकों के मामलों को नजरअंदाज किया गया। गलतियों को न सुधारना ही आज की शिक्षा व्यवस्था के संकट का मूल कारण है। शिक्षक की पदोन्नति क्यों जरूरी है-शिक्षक केवल पढ़ाने वाला व्यक्ति नहीं,बल्कि समाज का निर्माता होता है। यदि वही निराश रहेगा तो शिक्षा का वातावरण भी नकारात्मक होगा। पदोन्नति न मिलने से शिक्षक के भीतर प्रेरणा और आत्मसम्मान दोनों घटते हैं। समाज में गुरु का दर्जा कमज़ोर होता है। युवा पीढ़ी शिक्षक पेशे की ओर आकर्षित नहीं होती। अंत शिक्षा व्यवस्था कमजोर होकर गिरावट की ओर बढ़ती है। नियमित पदोन्नति व्यवस्था-एलटी से प्रवक्ता पदोन्नति अधिकतम पांच वर्ष में और प्रधानाध्यापक से प्रधानाचार्य पदोन्नति 15 वर्ष के अनुभव के बाद सुनिश्चित हो। नए पदों का सृजन यदि नये विद्यालय न भी खुलें तो भी शिक्षकों की पदोन्नति हेतु पदों का निर्माण आवश्यक है। विवादित शासनादेशों की समीक्षा-पुराने शासनादेश और नियमावली जो रोड़ा बन रहे हैं,उन्हें निरस्त कर नये और पारदर्शी नियम बनाए जाएं। योग्य युवाओं को आकर्षित करना शिक्षक पद को आकर्षक और भविष्यदायी बनाया जाए ताकि प्रतिभाशाली युवा शिक्षा क्षेत्र की ओर प्रेरित हों। शिक्षक दिवस पर सबसे बड़ा तोहफा-यदि देवभूमि उत्तराखंड अपने शिक्षकों का सम्मान करना चाहती है,तो उन्हें केवल शब्दों में नहीं,अवसरों और पदोन्नति में सम्मान देना होगा। शिक्षक दिवस पर नीति-नियंता यह संकल्प लें कि गुरु के उत्साह को पुनर्जीवित किया जाएगा। यही वास्तविक श्रद्धांजलि होगी हमारे ऋषि-मुनियों और गुरु परंपरा को। अंत में लेखक की विनती-मुकेश बहुगुणा प्रवक्ता समाजशास्त्र,विनम्र निवेदन करता हूँ कि इस देवभूमि के शिक्षकों को पदोन्नति का न्यायपूर्ण अवसर मिले। गुरु के सम्मान की पुनर्स्थापना हो,ताकि वह पुनः उसी गौरव के साथ समाज और राष्ट्र निर्माण में योगदान दे सके।

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