गढ़वाल की पहाड़ी ककड़ी: गर्मियों में स्वाद और सेहत की डबल डोज़

नीय किसान बताते हैं कि यह ककड़ी न केवल स्वादिष्ट होती है बल्कि इसमें प्राकृतिक मिठास और ताज़गी होती है,जो मैदानों में मिलने वाली सामान्य ककड़ियों से बिल्कुल अलग है।
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गर्मियों की तपिश में जब प्यास बुझाने और शरीर को ठंडक पहुंचाने की बात आती है तो गढ़वाल की पहाड़ी ककड़ी सबसे आगे नजर आती है। आजकल गढ़वाल मंडल के गांव-गांव और कस्बों की मंडियों में यह पारंपरिक फल-सब्ज़ी खूब धूम मचा रही है। अपने मीठे और रसदार स्वाद,लंबाई और सुगंध के कारण गढ़वाली ककड़ी दूर-दराज तक खरीदारों को आकर्षित कर रही है। स्थानीय किसान बताते हैं कि यह ककड़ी न केवल स्वादिष्ट होती है बल्कि इसमें प्राकृतिक मिठास और ताज़गी होती है,जो मैदानों में मिलने वाली सामान्य ककड़ियों से बिल्कुल अलग है। यही कारण है कि गढ़वाल की ककड़ी पर्यटकों और स्थानीय उपभोक्ताओं के बीच खास पहचान बना चुकी है। विशेषज्ञों के अनुसार पहाड़ी ककड़ी में पानी की प्रचुर मात्रा,विटामिन,मिनरल्स और फाइबर मौजूद होता है। इसे खाने से शरीर में गर्मी कम होती है,पाचन तंत्र दुरुस्त रहता है और त्वचा पर प्राकृतिक निखार आता है। गढ़वाल की लोक संस्कृति में भी ककड़ी का विशेष महत्व है। पर्व-त्योहारों और मेलों में इसे प्रसाद स्वरूप भी चढ़ाया जाता है। पहाड़ी लोग इसे सिलबट्टे पर पिसे हुए स्थानीय नमक के साथ बड़े ही चाव से खाते हैं,जिससे इसका स्वाद और भी अनूठा हो जाता है। वहीं भांग की चटनी या दही के साथ खाने का अपना अलग ही मज़ा है। पौराणिक और लोककथा से जुड़ा महत्व-गढ़वाल में एक प्रचलित लोककथा के अनुसार प्राचीन समय में अलकनंदा घाटी में तप करने वाले एक ऋषि ने भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। जब भगवान प्रकट हुए तो ऋषि ने वरदान स्वरूप लोगों के लिए ऐसा फल मांगा,जो साधारण होते हुए भी भूख और प्यास दोनों शांत कर दे और स्वास्थ्य का रक्षक बने। तब भगवान शिव ने यहां की धरती को आशीर्वाद दिया और कहा कि गढ़वाल की धरती पर उगने वाली ककड़ी न केवल भोजन का हिस्सा होगी,बल्कि लोगों को ताजगी,ऊर्जा और दीर्घायु प्रदान करेगी। तभी से यहां की ककड़ी को देवभूमि का प्रसाद माना जाता है। यही वजह है कि मेलों और धार्मिक अनुष्ठानों में इसे चढ़ाना शुभ माना जाता है। गढ़वाली लोकगीतों और कहावतों में भी ककड़ी की मिठास और लोकप्रियता झलकती है। पहाड़ की बोली में अक्सर कहा जाता है ककड़ी खाणु छ मठ्ठी,प्यास बुझाणु छ ठिक्की। अर्थात,ककड़ी खाना स्वादिष्ट है और यह तुरंत प्यास भी बुझा देती है। वहीं कुछ लोकगीतों में प्रेम और अपनत्व का प्रतीक मानकर गाया जाता है मेरी भुली ल्याणी बाजारौं की ककड़ी,मीठी लगदी दिल कू ठंडी। मेरी बहन बाजार से जो ककड़ी लाती है,वह दिल को ठंडक पहुंचाती है। मंडियों में ककड़ी की रौनक और किसानों को लाभ-इस बार पहाड़ी ककड़ी ने किसानों को भी अच्छा मुनाफा दिलाया है। मंडियों में ककड़ी की कीमत 80 रुपए से 100 रुपए प्रति किलो तक पहुंच चुकी है। ऊंची कीमत मिलने से किसानों के चेहरे खिले हुए हैं और यह मौसमी फसल उनकी आजीविका का मजबूत सहारा बन रही है। श्रीनगर,पौड़ी,रुद्रप्रयाग और चमोली की मंडियों में इन दिनों ककड़ी की खास रौनक देखने को मिल रही है। सुबह से ही गांव के किसान टोकरी और बोरे भरकर ककड़ी मंडियों तक लाते हैं,जहां स्थानीय उपभोक्ता और व्यापारी उत्साह से खरीदारी करते हैं। पर्यटक भी इसे बड़े शौक से खरीदकर स्वाद चखते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि जहां पहले यह ककड़ी केवल स्थानीय खपत तक सीमित थी,वहीं अब व्यापारी इसे शहरों तक ले जाने लगे हैं। आज जब स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ रही है,ऐसे में गढ़वाल की पहाड़ी ककड़ी एक नेचुरल हेल्थ बूस्टर के रूप में लोगों के बीच अपनी पहचान मजबूत कर रही है। गढ़वाल मंडल की मंडियों से लेकर शहरी बाजारों तक इसकी गूंज यही संदेश देती है कि धरती का वरदान है ककड़ी,गढ़वाल का सम्मान है ककड़ी।

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