
हिमालय टाइम्स गबर सिंह भण्डारी
रुद्रप्रयाग/श्रीनगर गढ़वाल। उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण केवल एक प्रशासनिक पुनर्गठन नहीं,बल्कि यह सामाजिक चेतना,सांस्कृतिक पहचान,राजनीतिक इच्छाशक्ति और आर्थिक आकांक्षाओं की दीर्घ ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम था। राज्य निर्माण की यह यात्रा पर्वतीय जनता की अस्मिता,अस्तित्व और आत्मनिर्भरता की भावना से जुड़ी रही है। राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ.दलीप सिंह बिष्ट ने कहा कि उत्तराखण्ड आंदोलन का इतिहास इस दृष्टि से अद्वितीय रहा कि यह मात्र राजनीतिक शक्ति प्राप्ति का आंदोलन नहीं था,बल्कि यह सामाजिक न्याय,पर्यावरणीय संवेदनशीलता और सांस्कृतिक स्वाभिमान का प्रतीक था। 1990 के दशक में आंदोलन ने उस असमानता को उजागर किया,जो सदियों से मैदान और पहाड़ के बीच बनी रही। शिक्षा,स्वास्थ्य,संचार,रोजगार और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों ने इस आंदोलन को एक नैतिक दिशा दी। अंततः 9 नवम्बर 2000 को जब उत्तराखण्ड भारत के एक नए राज्य के रूप में अस्तित्व में आया,तो यह पर्वतीय जनमानस के संघर्षों,त्याग और सपनों की परिणति थी। उन्होंने कहा कि राज्य निर्माण के पच्चीस वर्ष बाद भी यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या हम उस दिशा में आगे बढ़ पाए हैं,जिसकी कल्पना हमारे आंदोलनकारियों ने की थी। आज भी उत्तराखण्ड के समक्ष पलायन,बेरोजगारी,जल संकट,वनाग्नि,असमान विकास और पर्यावरणीय असंतुलन जैसी गंभीर चुनौतियां मौजूद हैं। पहाड़ की अर्थव्यवस्था को स्थायी आधार नहीं मिल सका है। शहरीकरण और बाजारवाद ने पारंपरिक जीवनशैली व लोकसंस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। डॉ.बिष्ट के अनुसार राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन स्थानीय हितों के बजाय बाहरी पूंजी और कॉर्पोरेट स्वार्थों की ओर झुका हुआ है,जो राज्य निर्माण की मूल भावना के विपरीत है। डॉ.बिष्ट ने कहा कि अब समय है कि राज्य अपने विकास मॉडल पर पुनर्विचार करे। स्थानीय सहभागिता,पारंपरिक ज्ञान,पर्यावरणीय संतुलन और विकेन्द्रीकृत शासन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उन्होंने जोर दिया कि पहाड़ की भौगोलिक,सामाजिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए ग्राम्य अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाना और युवाओं को स्थानीय संसाधनों से जुड़कर आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। उन्होंने कहा कि राज्य निर्माण का मूल उद्देश्य केवल राजनीतिक सीमाओं का निर्धारण नहीं था,बल्कि एक न्यायपूर्ण,आत्मनिर्भर और संतुलित समाज की स्थापना थी। अतः अब आवश्यकता है कि उत्तराखण्ड अपने अतीत के अनुभवों से सीख लेकर ऐसे भविष्य की दिशा तय करे,जिसमें स्थानीय संसाधनों का संरक्षण,मानवीय विकास और सांस्कृतिक अस्मिता का समन्वय सुनिश्चित हो। अंत में डॉ.बिष्ट ने कहा कि उत्तराखण्ड का इतिहास केवल एक संघर्ष की गाथा नहीं,बल्कि एक सतत सामाजिक प्रयोग है। यदि राज्य अपने मूल आदर्शों लोककेंद्रित शासन,पारिस्थितिक संतुलन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ओर पुनः अग्रसर होता है,तो निश्चय ही यह अपने अतीत को सार्थक करते हुए भविष्य की नई संभावनाओं को दिशा प्रदान करेगा।