ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के बल्ली सिंह चीमा की यह पंक्ति कभी उत्तराखंड के लोगों की उम्मीदों का प्रतीक थी। 9 नवंबर 2000 को जब लंबे संघर्ष,अनेक आंदोलनों और शहीदों के बलिदान के बाद यह राज्य अस्तित्व में आया,तब किसी ने नहीं सोचा था कि दो दशक बाद देवभूमि पलायन की चपेट में आ जाएगी। आज हालात ऐसे हैं कि गांवों के दरवाजों पर ताले लगे हैं,कभी आबाद रहने वाले घर खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं और पहाड़ की जीवनधारा सूखती जा रही है। पलायन किसी एक समस्या का कारण नहीं बल्कि कई गहरी समस्याओं का परिणाम है। पहाड़ों में जीवन वैसे ही कठिन है,लेकिन जब पानी,बिजली,सड़क,शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएं न मिलें,तो लोग मजबूरी में मैदानों की ओर रुख करते हैं। आज उत्तराखंड का बोझ देहरादून,हरिद्वार,ऋषिकेश,हल्द्वानी,नैनीताल,काशीपुर और रुद्रपुर जैसे शहरों पर बढ़ता जा रहा है। उत्तराखंड के पहाड़ों में उच्च शिक्षा संस्थानों का भारी अभाव है। देहरादून और हरिद्वार को छोड़ दें तो गिनती के कुछ कॉलेज हैं,जिनकी गुणवत्ता भी सवालों के घेरे में है। दूरस्थ क्षेत्रों के सरकारी इंटर कॉलेज आज भी शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। बच्चों को मजबूरन नकल के सहारे डिग्री हासिल करनी पड़ती है, लेकिन जब वे प्रतिस्पर्धा में उतरते हैं,तो शहरों के बच्चों के सामने टिक नहीं पाते। माता-पिता जैसे ही थोड़ा सक्षम होते हैं,अपने बच्चों को शिक्षा के लिए शहर भेज देते हैं। यदि शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधरी,तो पलायन की यह धारा और तेज हो जाएगी। उत्तराखंड की कृषि बिखरी हुई और असंगठित है-कभी जौ,बाजरा,कोदा,झंगोरा जैसे पौष्टिक अनाज यहां की पहचान थे,लेकिन आज उचित दाम न मिलने की वजह से किसान इन्हें उगाना छोड़ चुके हैं। सरकार चाहे तो इन पारंपरिक अनाजों को बढ़ावा देकर किसानों की आर्थिक स्थिति मजबूत कर सकती है। बंजर पड़ी कृषि भूमि का वैज्ञानिक तरीकों से उपयोग कर रोजगार के नए अवसर पैदा किए जा सकते हैं। हिमाचल मॉडल हमारे लिए प्रेरणा हो सकता है,जहां फलों की खेती को बढ़ावा देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया गया। भूगोल की वजह से उत्तराखंड में भारी उद्योग संभव नहीं,लेकिन लघु उद्योगों के लिए यहां असीम संभावनाएं हैं। दुर्भाग्यवश,सरकार अब तक कोई ठोस योजना लागू नहीं कर पाई। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली स्वरोजगार योजना जैसी योजनाएं केवल वाहन ऋण तक सीमित रह गई हैं। हस्तशिल्प,मधुमक्खी पालन,जैविक खेती,बागवानी और वन उत्पाद आधारित उद्योगों में रोजगार सृजन की अपार संभावनाएं हैं,लेकिन सरकारी लापरवाही ने इन्हें उपेक्षित कर दिया है। पहाड़ों में स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल चिंताजनक है-डॉक्टर,पैरामेडिकल स्टाफ,फार्मेसी कर्मचारियों की भारी कमी है। आपातकालीन स्थितियों में 108 एंबुलेंस सेवा सहायक जरूर है,लेकिन यह पीपीपी मॉडल कई सवाल खड़े करता है। साधारण बीमारियों के लिए भी लोगों को देहरादून या हल्द्वानी भागना पड़ता है। उत्तराखंड के पास देवभूमि का गर्व है,लेकिन पर्यटन के क्षेत्र में हमारी छवि बेहद कमजोर है। स्थानीय स्तर पर सेवा की गुणवत्ता कम है और सकारात्मक सोच की कमी दिखती है। सरकार चाहे तो सस्टेनेबल टूरिज्म मॉडल विकसित कर पलायन रोकने के साथ रोजगार के नए अवसर पैदा कर सकती है। पलायन रोकना असंभव नहीं है,लेकिन इसके लिए व्यापक और ठोस नीतियों की जरूरत है-गुणवत्तापूर्ण शिक्षा-दूरस्थ गांवों तक उच्च शिक्षा और तकनीकी संस्थानों की पहुंच। कृषि का पुनर्जीवन-पारंपरिक फसलों को उचित दाम,वैज्ञानिक खेती और सामूहिक खेती को बढ़ावा। लघु उद्योगों को प्रोत्साहन-पहाड़ी उत्पादों पर आधारित उद्योगों की स्थापना। स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार-प्रत्येक ब्लॉक में सुपर स्पेशियलिटी स्वास्थ्य केंद्र। पर्यटन का विकास-ट्रेकिंग,होमस्टे,एडवेंचर स्पोर्ट्स और तीर्थाटन को संगठित तरीके से बढ़ावा। सामाजिक समरसता-जातिगत भेदभाव और देशी-पहाड़ी विवाद से ऊपर उठकर सामूहिक विकास की दिशा में प्रयास। अगर हम अभी नहीं जागे,तो देवभूमि केवल तीर्थाटन का केंद्र रह जाएगी और गांवों की आत्मा पूरी तरह खत्म हो जाएगी। बल्ली सिंह चीमा की मशालें अब भी जल रही हैं,लेकिन जरुरत है उन्हें नए रास्तों की ओर मोड़ने की। यदि हमने अपनी शिक्षा,स्वास्थ्य,कृषि,उद्योग और पर्यटन को समय रहते नहीं संवारा, तो उत्तराखंड की तबाही की कहानी भी हम ही लिखेंगे।
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उत्तराखंड के विकास में सबसे बड़ी चुनौती-पहाड़ों से हो रहा पलायन
ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के बल्ली सिंह चीमा की यह पंक्ति कभी उत्तराखंड के लोगों की उम्मीदों का प्रतीक थी। 9 नवंबर 2000 को जब लंबे संघर्ष,अनेक आंदोलनों और शहीदों
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